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Saturday, February 28, 2009

चुनाव जीतना अंतिम उद्देश्य नहीं है !!!

पिछले प्रसंग में आपने पढ़ा कि टीवी चेनल पर अपने इंटरव्यू में अमरेन्द्र ने कहा कि चुनाव एक प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत जनता अपने प्रतिनिधि चुनती है. कोई भी नागरिक जनता का प्रतिनिधित्व करने का प्रस्ताव रख सकता है. एक से अधिक प्रस्तावक होने की स्थिति में चुनाव आयोग ऐसी व्यवस्था करता है जिस में जनता किसी एक प्रस्ताव का अनुमोदन कर सके. जिस प्रस्तावक के प्रस्ताव को बहुमत का अनुमोदन मिलता है वह आधिकारिक रूप से अगले पांच वर्ष के लिए जनता का प्रतिनिधित्व करता है. इस सारी प्रक्रिया को चुनाव की संज्ञा दी गई है. अमरेन्द्र ने कुछ नया नहीं कहा पर जिस अंदाज में उन्होंने यह सब कहा और जिन शब्दों का प्रयोग किया उस से चुनाव की एक बिलकुल नई परिभाषा सामने आई, एक नया सोच सामने आया, चुनाव का सही उद्देश्य क्या है यह पता चला. यह सब सुन कर मेरे मन में एक नई आशा का संचार हुआ. मुझे लगा कि यह एक नई वैचारिक क्रांति का शुभारम्भ है. 

अमरेन्द्र ने आगे कहा, 'मेरे लिए चुनाव जीतना अंतिम उद्देश्य नहीं है. मेरा अंतिम उद्देश्य है समाज सेवा. मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि समाज सेवा करने के लिए जन प्रतिनिधि होना जरूरी नहीं है, कोई चुनाव जीतना जरूरी नहीं है. हाँ यह सच है कि जन प्रतिनिधि के रूप में समाज सेवा और अधिक प्रभावशाली रूप से की जा सकती है. हमारे देश की प्रजातांत्रिक प्रबंध व्यवस्था में जन प्रतिनिधि को कुछ ऐसे अधिकार मिलते हैं जिन का सही प्रयोग जनता की सेवा करने में सहायक हो सकता है. लेकिन यह दुर्भाग्य की बात है कि इन अधिकारों का दुरूपयोग किया जाता है, जन प्रतिनिधि यह अधिकार पा कर निरंकुश शासक बन जाते हैं और तानाशाहों जैसा व्यवहार करने लगते हैं. आज़ादी के इन ६० वर्षों में जन प्रतिनिधियों के आचरण में जो गिराबट आई है उस ने भारतीय प्रजातंत्र का  नाम बदनाम किया है. जिनसे मानवीय मूल्यों के आदर्श स्थापित करने की अपेक्षा की गई थी उन्होंने इन मूल्यों को पतन के गर्त में झोंक दिया. इस लिए यह जरूरी है कि हम फिर एक क्रान्ति की शुरुआत करें और भारत को  इस अधोपतन की दासता से मुक्त कराएँ'. 

केमरा फिर एक बार सब पर घूम गया. सब मंत्रमुग्ध से बैठे थे. अमरेन्द्र ने अपने थेले से कुछ कागज़ बाहर निकाले और उन्हें सुधांशु को देते हुए कहा, 'मैं अपने प्रस्ताव के साथ भरे नामांकन पत्र और उसके साथ लगाए गए शपथपत्रों की प्रतिलिपियाँ सुधांशु जी को दे रहा हूँ. इन से आपको मेरा पूरा परिचय मिल जायेगा. इन शपथपत्रों में जो संकल्प मैंने किये हैं उनकी प्रतिलिपियाँ मैं जल्दी ही आप सबको उपलब्ध करा दूंगा. आप उन्हें पढिये और तय कीजिए कि क्या मैं आपका उचित प्रतिनिधित्व कर सकूंगा. यदि आपको यह विश्वास हो जाए तो मेरे प्रस्ताव पर अनुमोदन मत दीजियेगा.'

सुधांशु ने उन कागजों पर निगाह डाली. वह कुछ चकित सा लग रहा था. उसने पूछा, 'इनमें ऐसे शपथपत्र भी हैं जिनकी कानून के हिसाब से जरूरत नहीं है'. 

अमरेन्द्र ने कहा, 'आपकी बात सही है. पर मेरे हिसाब से यह सब जरूरी है. मैंने जिनका प्रतिनिधित्व करने का प्रस्ताव किया है उन्हें यह अधिकार है कि वह मेरे बारे में सब कुछ जानें. मैं भीष्म पितामह नहीं हूँ, पर जो शपथ मैंने ली हैं उन्हें निभाने में उनसे कम नहीं रहूँगा'. 

सुधांशु ने घडी पर नजर डाली और कहा,'समय के अभाव के कारण हमें यह कार्यक्रम यहीं समाप्त करना होगा. विश्वास कीजिए इन कागजों में जो लिखा है वह किसी भीष्म प्रतीज्ञा से कम नहीं है. मुझे लगता है कि यह कार्यक्रम हमें अब रोज प्रसारित करना होगा. अमरेन्द्र जी से मेरा निवेदन है कि इस कार्यक्रम के लिए समय निकालें. उनके विचार जनता तक पहुँचाना जरूरी है, नमस्कार'. 

क्रमशः 

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