चुनाव का मौसम आ गया था. राजनीतिक उठा-पटक जोर-शोर से शुरू हो गई थी, पार्टियों के बीच सीटों के लिए, और पार्टी के अन्दर टिकटों के लिए. बंद दरवाजों के पीछे टिकटों की नीलामी बंद हो चुकी थी. लागों का कहना है कि हर बार की तरह इस बार भी दो ही मापदंड थे - बफादारी और टिकट की कीमत. सच्चाई, ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा जैसे शब्द पहले ही बेमानी हो चुके हैं. आज की स्थिति को देख कर दो लाइनें याद आती हैं -
मवालियों को न देखा करो हिकारत से,
न जाने कौन सा गुंडा वजीर बन जाए.
हमारे चुनाव छेत्र से उम्मीदवारों ने नामांकन भर दिए थे. जांच हो चुकी थी और आधिकारिक रूप से जनता को पता चल चुका था कि कौन कौन महानुभाव चुनाव लड़ रहे हैं. एक टीवी चेनल ने घोषणा की कि वह सब उम्मीदवारों से इंटरव्यू प्रसारित करेंगे. टॉप के उम्मीदवारों के इंटरव्यू हो भी चुके थे. अपनी तारीफ़ और दूसरों को गालियाँ, बस यही हुआ. कोई नई बात नहीं. आज एक आखिरी उम्मीदवार का इंटरव्यू था. यह महानुभाव निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रहे थे. कम ही लोग उन्हें जानते थे. किसी को उनके इंटरव्यू में कोई दिलचस्पी नहीं थी. हमें भी नहीं. हमने कुछ मित्रों के साथ बाहर का एक कार्यक्रम बना रखा था. किसी कारण से यह कार्यक्रम रद्द हो गया. सोचा चलो इस आखिरी इंटरव्यू को भी देख लिया जाय.
टीवी एंकर सुधांशु ने अपनी चेनल की तारीफ़ करने के बाद बताया कि आज उनके इस महान कार्यक्रम का आखिरी इंटरव्यू है. श्री अमरेन्द्र एक निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रहे हैं. उनके बारे में कुछ खास पता नहीं है, इसलिए उनसे प्रार्थना है कि स्वयं ही अपना परिचय दें. केमरा अमरेन्द्र जी के चेहरे पर फोकस हुआ. कोई ज्यादा उम्र नहीं होगी. ऐसा लग रहा था जैसे अभी भी पढ़ रहे हैं. उन्होंने ने नमस्कार किया और कहा, 'सुधांशु जी ने मेरा इतना ही परिचय आपको दिया है कि मैं एक निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रहा हूँ. यह परिचय गलत है. मैं चुनाव नहीं लड़ रहा हूँ'.
मैंने सोचा मारे गए, अब यह श्रीमान कहेंगे कि मैं चुनाव लड़ नहीं रहा बल्कि उसमें भाग ले रहा हूँ. ऐसा मैंने एक फिल्म में देखा था जहाँ विलेन जनता को प्रभावित करने के लिए यही कहता है. एक बार सोचा कि टीवी बंद कर दें, पर कोई और काम नहीं था इसलिए चलने दिया. अमरेन्द्र जी ने हमें गलत साबित कर दिया.
उन्होंने कहा, 'चुनाव कोई लड़ाई नहीं है. चुनाव एक प्रक्रिया है जिस के माध्यम से जनता अपने प्रतिनिधि चुनती है, और इस पक्रिया की आवश्यकता भी तब पड़ती है जब जनता को एक से अधिक व्यक्तियों में से किसी एक को चुनना होता है'.
सुधांशु ने कहा कि सब ऐसा ही कहते हैं कि हम चुनाव लड़ रहे हैं. अमरेन्द्र ने कहा, 'आपकी बात सही है कि लोग ऐसा कहते हैं, पर यह गलत है. मैं अपना परिचय चुनाव लड़ने वाले के रूप में नहीं देना चाहूँगा. मैं यह भी नहीं कहूँगा कि मैं चुनाव में भाग ले रहा हूँ. मेरा आप सब से निवेदन है कि मेरी बात ध्यान से सुनें. हमारे देश में प्रजातंत्र है. इस के अंतर्गत जनता के द्वारा चुने गए प्रतिनिधि लोक सभा में जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं, और एक प्रजातांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत देश का प्रवंधन करते हैं. कोई भी नागरिक, जनता के सामने उनका प्रतिनिधित्व करने का प्रस्ताव रख सकता है. जनता यदि उसके प्रस्ताव का अनुमोदन करती है तब वह व्यक्ति लोक सभा में पांच वर्ष तक उस छेत्र की जनता का प्रतिनिधित्व करता है. मैंने अगले पांच वर्ष तक जनता के समक्ष उनका प्रतिनिधित्व करने का प्रस्ताव रखा है. इसी तरह कुछ और लोगों ने भी ऐसा प्रस्ताव रखा है. जनता अब इन प्रस्तावकों में से किसी एक व्यक्ति के प्रस्ताव का अनुमोदन करेगी. इसके लिए चुनाव आयोग व्यवस्था करेगा और जनता मत के रूप में अपना अनुमोदन देगी. जिस प्रस्तावक को सबसे अधिक अनुमोदन मत मिलेंगे वह आधिकारिक रूप से अगले पांच वर्षों तक जनता का लोक सभा में प्रतिनिधित्व करेगा.'
बात सीधी और साफ़ थी, बस भाषा अलग थी. सब लोग यह जानते भी थे, लेकिन जिस अंदाज में यह बात कही गई थी वह कुछ अलग था. मुझे ऐसा लगा कि अमरेन्द्र चुनाव को एक अलग तरह से परिभाषित करना चाहते हैं. सुधांशु ने कहा, 'क्या फर्क पड़ता है. बात तो वही है सिर्फ शब्दों का ही तो फर्क है'.
अमरेन्द्र ने कहा, 'नहीं ऐसी बात नहीं है. शब्द बहुत ताकतवर होते हैं. जो शब्द हम बोलते हैं वह हमारे सोच को दर्शाते हैं और हमारे कर्म को निर्धारित करते हैं. अगर हम यह कहते हैं कि हम चुनाव लड़ रहे हैं तो हमारा सोच चुनाव को एक लड़ाई के रूप में देखता है और फिर हम उस लड़ाई को जीतने के लिए हर संभव प्रयास करते हैं. हमारा यह सोच हमसे हिंसा तक करवा देता है. चुनाव में जीतना हमारे लिए जीवन-म्रत्यु का प्रश्न बन जाता है. जब हम कोई वस्तु लड़ कर जीतते हैं तो उस का उपभोग करने की भावना हमारे अन्दर रहती है. चुनाव के बाद हम जनता के प्रतिनिधि नहीं, बल्कि उनके स्वामी बन जाते हैं. उनका लोक सभा में प्रतिनिधित्व करने की जगह हम जनता पर शासन करते हैं'.
अमरेन्द्र कुछ पलों के लिए रुके. केमरा सुधांशु से होता हुआ कक्ष में बैठे लोगों पर घूम गया. सब अवाक से लग रहे थे. यह सब कुछ उन्होंने इस तरह से नहीं सुना था. जो कुछ देश में हो रहा है उसे इस तरह भी कहा जा सकता है, यह सब के लिए एक नई बात थी. अमरेन्द्र ने फिर कहना शुरू किया, 'अब हम चुनाव को मात्र एक प्रक्रिया के रूप में लें, और खुद को एक प्रस्तावक के रूप में, और जनता के मत को प्रस्ताव अनुमोदन के रूप में. इस से हमारा पूरा सोच ही बदल जाता है. क्या आपको नहीं लगता कि ऐसे सोच वाले व्यक्ति सच्चाई, ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा से जनता का प्रतिनिधित्व करेंगे. वह जनता के विश्वास के ट्रस्टी होंगे, जनता के शासक नहीं. ऐसे सोच वाले लोग ही देश में सच्चा प्रजातंत्र ला सकेंगे. आज देश का तंत्र राज करने के लिए है, जैसा राजतंत्र में होता है. नाम प्रजातंत्र है पर वास्तव में है राजतंत्र. राजनितिक दल यह कहने में गर्व अनुभव करते हैं कि देश में या प्रदेश में हमारा राज्य है. कोई उसे प्रजा का राज्य नहीं कहता. हमें आजादी मिली अंग्रेजों के राजतंत्र से, पर अब हम गुलाम हैं भारतीयों के राजतन्त्र के. प्रजातंत्र तो कहीं नजर ही नहीं आता. इसलिए मैं अपना परिचय एक प्रस्तावक के रूप में देना चाहूँगा. मैं प्रस्ताव करता हूँ इस छेत्र की जनता का अगले पांच वर्षों तक लोक सभा में प्रतिनिधित्व करने के लिए. मेरा निवेदन है कि आप मेरे प्रस्ताव का अनुमोदन करें और मुझे अपना प्रतिनिधित्व करने का अधिकार प्रदान करें'. यह कह कर अमरेन्द्र चुप हो गए. केमरा फिर सब पर घूम गया. सब अवाक से देख रहे थे. फिर एक कौने से ताली की गूँज उठी और सारा हाल तालियों की गूँज से भर गया. सब खड़े थे और तालियाँ बजा रहे थे. धीरे-धीरे तालियों शांत हुईं. सब बैठ गए. एक बुजुर्ग सज्जन खड़े थे. सुधांशु ने पुछा, 'क्या आप कुछ कहना चाहते हैं?' उन्होंने कहा, 'हाँ, अमरेन्द्र जी ने जो कहा वह मैंने सुना. आजादी के ६० वर्षों में किसी ने ऐसा नहीं कहा. कुछ समझ में आया और कुछ समझ में नहीं आया. पर न जाने क्यों मुझे एक आशा बंध रही है कि कुछ नया और सही होने वाला है, और यह बहुत बड़ी बात है'.
क्रमशः