आज एक ब्लाग 'युग-विमर्श' पर एक पोस्ट आई है - "गिरफ़्तारी पे उसकी इस क़दर बेचैनियाँ क्यों हैं."
पता नहीं किस की और ईशारा कर रहे हैं डॉ. शैलेश ज़ैदी जो इस ब्लाग के अनुसार हैं प्रोफेसर एवं पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष तथा डीन, फैकल्टी आफ आर्ट्स, मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ. इस रचना की आखिरी दो लाइनों पर आप का ध्यान चाहूँगा:
दलित हों या मुसलमाँ या वो सिख हों या हों ईसाई,
सभी के साथ तनहा आप ही ईज़ा-रसां क्यों हैं.
कुछ अंदाजा तो लगता है. क्या ख्याल है आप का?
2 comments:
हमें तो उसका शीर्षक पढ़ कर ही उनकी बैचेनी समझ में आ गई थी.
वे वही कहना चाह रहे है, जो आप समझ रहे है.
बैचेन आत्माएं बैचेनी ही देखेगी और गाएगी भी.
एक और पोस्ट आई है उनकी - "वतन की सरजमीं को माँ का दर्जा देते आये हैं" - शायद इसीलिए 'वंदे मातरम' इस्लाम के ख़िलाफ़ है?
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